Monday, September 24, 2012

Je Ko Gurmukhi Hoei


जे को गुरमुखि होइ 
 "
आज हमें गुरबाणी की सही समझ ना आने के कारण तो बहुत हैं | जिनमे से विद्या , अविद्या और ब्रह्म-विद्या के बीच का अंतर हमें मालूम ना होना सबसे बड़ा कारण है | गुरबाणी में कई जगह ऐसे संकेत दिए गए हैं जैसे कि:-

माधो अबिदिआ हित कीन ॥ 
बिबेक दीप मलीन ॥१॥ रहाउ ॥
आसा (भ. रविदास ) श्री आदि ग्रन्थ, पन्ना ४८६/६ 

पाधा पड़िआ आखीऐ बिदिआ बिचरै सहजि सुभाइ ॥
बिदिआ सोधै ततु लहै राम नाम लिव लाइ ॥
ामकली ओंकार (म. १ ) श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना ९३७/१८ 

विदिआ वीचारी तां परउपकारी ॥आसा (म. १ ) श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना ३५६/१४ 

उपरोक्त पंक्तियों से पता लगता है कि विद्यालयों , महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों से पढाई कर चुके या पढाई करवाने वाले गुरबाणी के अर्थ नहीं कर सकेंगे क्यूंकि यहाँ महज विद्या पढाई जाती है विचारी नहीं जाती | विचारी हुई विद्या ही हमारे आत्मिक भले के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है | नहीं तो विद्वान् वाद-विवाद में उलझ कर असल में अपनी अक्ल का नाश ही किया करते हैं |

अकलि एह न आखीऐ अकलि गवाईऐ बादि ॥
सारंग की वार (म. १ ), श्री आदि ग्रन्थ ,पन्ना १२४५/४ 

खोजी उपजै बादी बिनसै हउ बलि बलि गुर करतारा ॥मलार (म. १ ), श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना १२५५/६ 

उपरोक्त पंक्तियाँ उस वक्त के विद्वानों या पण्डितों के प्रथाय ही उचारीं हुई हैं | जो की आज के विद्वानों पर भी सौ फीसदी लागु होती हैं | क्यूंकि आज के सिक्ख विद्वान् वाद-विवाद में उलझे हुए हैं | विद्वान् विद्या पढने तक ही सिमित होते हैं 
जबकि गुरमुख जो पढते हैं उसको विचारते भी हैं कि इसमें सच कितना है ?
इसलिए गुरमुख मनमत के ग्रंथों से कभी प्रभावित नहीं हुए | जबकि विद्वानों को मनमत की समझ ही नहीं होती | क्यूंकि मनमत की समझ ही तभी आती है जब कोई अपनी अंतरात्मा से अपनी मत (अक्ल ) को थोड़ी मान लेता है | 

तू समरथु वडा मेरी मति थोरी राम ॥ बिहागडा (म. ५ ), श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना ५४७/१० 

विद्वानों में यह गुण ना कभी हुआ है और ना ही हो सकता है , पर अगर कहीं ऐसा हो जाये फिर विद्वान् अपने आप को विद्वान् नहीं मानता , वो गुरमुख हो जाता है | इसलिए गुरबाणी को अर्थाना गुरमुखों के हिस्से ही आता है | 

बाणी बिरलउ बीचारसी जे को गुरमुखि होइ ॥ रामकली ओंकार (म. १ ) , श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना ९३५/१२ 

बाणी को केवल वो ही विचार सकता है जो गुरबाणी को पढने की बजाये गुरबाणी से पढ़ा हो |पिछले ३-४ सालों में विद्वानों ने ही यह मान लिया है कि गुरबाणी को अर्थाने के लिए हमारे पास कोई शब्दकोष नहीं है क्यूंकि गुरबाणी की भाषा अपने आप में एक अलग भाषा है | इसमें निराकार के ज्ञान का कथन किया गया है जबकि निराकार के ज्ञान का विषय संसारी महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों का है ही नहीं | 
 -: धरम सिंघ निहंग सिंघ  :-

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