Wednesday, June 15, 2016

Tarak Vitarak (Hujat) Aour Vivek Budhi

तर्क, वितर्क (हुज्ज़त) और विवेक-बुद्धि

तर्क उस तीर (हथियार) को कहा जाता है, जिसमे झूठ को काट देने की समरथा हो। झूठ के भ्रम-जाल को पूरी तरह से काट देने की समरथा रखने वाला तर्क, विवेक - बुद्धि वाले इंसानों के ह्रदय की उपज होता है। विवेक - बुद्धि को इसलिए गुरबाणी में "ज्ञान -खडग" भी कहा गया है इसमें हर प्रकार के पाखंडवाद को नंगा कर देने की समरथा होती है और भरम -ज्ञान की कोई  भी दलील इसके आगे टिक नहीं सकती। फिर भी तर्क के रूप होते हैं, तर्क और कुतर्क (हुज्जत) भरम-ज्ञानी के तर्क को तो असल में वितर्क (हुज्ज़त) ही कहा जाना चाहिए। परन्तु भरम-ज्ञानी तो इसे तर्क ही कहेगा, इसलिए गुरबाणी में भरम-ज्ञान से उपजे तर्क को तर्क कह कर ही निंदा गया है:

माइया की किरति छोडि गवाई भगती सार जानै ।।
बेद सासत्र कउ तरकनि लागा ततु जोगु पछानै ।।
(आसा : , पन्ना ३८१)

यहाँ सतिगुरु जी तत्त-ज्ञान से बेमुख, भगती की समझ से अनजान किसी भरम-ज्ञानी को कह रहे हैं कि तू आप तो अज्ञानी है, तत्त-ज्ञान क्या होता है इसका तुझे पता ही नहीं, परन्तु वेद शास्त्र, भाव उस तत्त-ज्ञान को तर्क रहा है जिसके अन्दर मन को कल्पना रहित कर देने की  समरथा है। वेद का अर्थ है "ज्ञान" और शास्त्र का अर्थ है संभाल करने की समरथा। इसलिए "वेद शास्त्र" का अर्थ वो ज्ञान है जिस में मन को जीत लेने की समरथा हो। जब बुद्धि इस तत्त-ज्ञान को समझ लेती है तब वो मन को अपनी मर्ज़ी से सोचने से रोक देने में समरथ हो जाती है इसको ही गुरबाणी में "मन जीतै जग जीत" कहा गया है जिसका भाव है कि जो  बुद्धि मन को जीतने की समरथा हासिल कर लेती है, उसके आगे दुनिया की और कोई अक्ल टिक नहीं सकती, जबकि अपने जैसी दूसरी बुद्धि के साथ इस विवेक-बुद्धि का टकराव होता ही नहीं क्यूंकि ये एक रूप ही होती हैं। ये "ऐक जोति दुइ मूरती" होती हैं। दूसरी तरफ जब भरम-ज्ञानी, तत्त-ज्ञान को तर्कता है, उसके इस तर्क को गुरबाणी में हुज़्ज़त कहा गया है:

गुरमति साची हुज़ति दूरि ।। बहुतु सिआणप लागै धूरि ।।
लागी मैलु मिटै सच नाइ ।। गुर परसादि रहै लिव लाइ ।।
(आसा : , पन्ना ३५२)

यहाँ सतिगुरु जी गुरमत को भरम-ज्ञानी के तर्क (हुज्ज़त) से अलग इसलिए कह रहे हैं क्यूंकि गुरमत सच्ची मत है और सच को काटा नहीं जा सकता। सच का विरोध करने वाले की मत तो और ज्यादा मलीन हो जाती है, जो सच के ज्ञान के बिना निर्मल नहीं हो सकती। अगर सच को तर्कने वाला परमेश्वेर की कृपा का पात्र बन जाये तो वो गुरमत को स्वीकार करके सच में लीन हो सकता है।
       बेशक से गुरबाणी में सच पर तर्क करना वर्जित है, पर सच को जानने के लिए जिज्ञासु द्वारा पूछा गया सवाल तर्क नहीं माना गया। भगतजनों और गुरु साहिबान से लोग अपनी शंकाओ का समाधान करवाते रहे हैं और गुरु साहिबान सिख्खों की शंकाओं को दूर भी करते रहे हैं। असल में धरम की अगुवाई करने वाला उसी को ही माना जाना चाहिए जो लोगो की शंकाओ को दूर करके उनके भरम को मिटा देने की समरथा रखता हो। जो लोग अपने आप को लोगों के धार्मिक रहनुमा तो कहलवाते हों पर किसी जिज्ञासू के द्वारा अपनी शंका निव्रती के लिए पूछे गए सवाल को तर्क कह कर, अपनी अज्ञानता को छुपाने की चालाकी करे, ऐसे बनावटी गुरुओं के लिए कबीर जी कह रहे हैं:

कबीर माइ मूँडउ तिह गुरु की जा ते भरमु जाइ ।।
आप डुबे चहु बेद महि चेले दीए बहाइ ।। १०४ ।।
(शलोक कबीर जी , पन्ना १३६९ )

कबीर की कह रहे है कि जो गुरु अपने सिख्खों के हर प्रकार के भरम को दूर कर देने की समरथा नहीं रखता, ऐसे झूठे गुरु की झूठी मत (माइ) के पाखंडवाद को नंगा कर देना चाहिए। बेशक से वो वेदों का ज्ञाता भी होवे, आप भवसागर में डूबा हुआ, पदार्थवादी होने के कारन अपने चेलों को भी भवसागर में डुबोने वाला होता है।
                गुरबाणी में पग-पग पर संसारी मतों पर, गुरबाणी के रचयिता द्वारा, तर्क किया गया है। हर एक मनमत की कमी को उजागर करके, उसका समाधान भी साथ -साथ ही सुझाया गया है। कहने से तात्पर्य यह है क़ि जब गुरमत में किसी दूसरी मत की कमी बताई गयी है तो उस कमी को दूर करने के लिए उपदेश भी दर्ज है जिससे पता लगता है कि गुरबाणी में बेशक से दूसरी मतों कि कमियां दर्शायी गयी हैं पर वो केवल सच के मार्ग पर चलाने के लिए ही हैं, यां ऐसा कह सकते है कि सही समझ  देने के लिए ही यह सब किया गया है। किसी मंद-भावना या किसी दूसरी मत की बदनामी करने के लिए ऐसा कुछ नहीं किया गया। पर आज जितने भी धार्मिक रहनुमा हमारे समक्ष हैं, वो सभी जिज्ञासुओं द्वारा अपनी शंकाओ के समाधान के लिए पूछे गए सवालों का जवाब देने की बजाये उन जिज्ञासुओं को यह कह कर चुप करवा देते हैं आपको तो (हमारे ऊपर) श्रद्धा ही नहीं, जिससे साफ़ जाहिर है कि उनके पास उन सवालों का जवाब ही नहीं। पर अपनी अज्ञानता को छुपाने के लिए वो श्रद्धा शब्द का दुरूपयोग कर लेते हैं। गुरबाणी में  सरधा (श्रद्धा) शब्द के अर्थ 'शुभ इच्छा ' होते हैं जैसे कि इस महावाक्य से स्पष्ट है:

सतिगुरु होइ दइआलु सरधा पूरीऐ ।।
सतिगुरु होइ दइआलु कबहूँ झूरीऐ ।।
(मांझ की वार : , पन्ना १४९  )

अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे ।।
नानक दास इहै सुखु मांगे मो कउ करि संतन की धूरे ।।
(राग गऊडी  पूरबी : , पन्ना १३ )

उपरोक्त पंग्तियों में किसी संसारी पदार्थ या सुख की इच्छा बिलकुल भी जाहिर नहीं है। यहाँ तो साचे नाम की भूख को दूर करने के लिए परमेश्वेर के आगे बिनती की गयी है। परन्तु भरम-ज्ञानियों की दुनियां में इस 'सरधा' लफ्ज़ के अर्थ बिगाड़ कर 'अंध-विश्वास ' कर दीए गए हैं। भरम-ज्ञानी झूठा गुरु (संत ) होता है, इसलिए  उसको अपने झूठ को बचाने के लिए यह पैंतरा अख्तियार करना ही पड़ता है। भरम-ज्ञानी तो भरम को फैला कर ही अपनी संतगिरी को कायम रख सकता है। इसलिए आज सिक्खी वेश वाले संतों को भी अपनी संतगिरी को बचाने के लिए कुछ ऐसे ही पैंतरों का सहारा लेना पड़ रहा है उनको गुरमत के सच की समझ ही नहीं। वो नकली संत, जिज्ञासुओं द्वारा पूछे गए सवालों को, "तर्क नहीं किया करते", कहकर उन भोले-भाले जिज्ञासुओं को चुप करा देते हैं।
                     सच का ज्ञान लिखित रूप में तो बेशक से हमेशा ही रहता है, पर मायाधारी साकत लोग अपनी झूठी विचारधारा को बचाने के लिए इस सच्ची मत के अर्थ बाहरमुखी करके बिगाड़ दिया करते हैं। ऐसा ही कुछ आज हमारे समक्ष गुरबाणी के साथ हुआ मौजूद है। पर जब गुरबाणी की मूल भावना को उजागर करने वाले अर्थ सामने जायेंगे तब सनातनी मत को मानने वालो की तरफ से विभिन्न प्रकार से शोर मचाना स्वभाविक है। अपनी संगत को ये विभिन्न प्रकार के तर्कों द्वारा, गुरबाणी के सच को काटने की असफल कोशिश करेंगे, क्यूंकि भरम-ज्ञानियों के अन्दर से वितर्क (हुज्ज़त) ही पैदा हुआ करता है, जिसको की वो अपनी तरफ से तर्क ही कहा करते हैं। सारी वार्ता का निष्कर्ष यह है की विवेक-बुद्धि ही एक ऐसी बुद्धि है, जिसमे से तर्क पैदा हो सकता है। भरम-ज्ञानी की कुबुद्ध में से तो वितर्क (हुज्ज़त) ही पैदा हुआ करता है। जब कोई जिज्ञासू सच को जानने की इच्छा से किसी धार्मिक व्यक्ति से कुछ जानकारी प्राप्त करने के लिए सवाल करता है और उसका जवाब उस धार्मिक व्यक्ति के पास नहीं होता, तो जिज्ञासू की अवस्था उस धर्म की अगुवाई करने वाले से ऊँची होती है। सच को जानने का सवाल भी उस जिज्ञासू की विवेक-बुद्धि से ही पैदा हुआ होता है, सच की जानकारी प्राप्त कर रही बुद्धि को ही विवेक-बुद्धि कहा जायेगा, बेशक से वह उस समय अधूरी ही क्यूँ हो। विवेक -बुद्धि द्वारा किया गया हर एक सवाल, पाखंडी गुरुओं के लिए तो तर्क ही होता है जबकि पूरे गुरु के लिए जिज्ञासू का ऐसा हर सवाल उसकी प्रगतिशीलता का पैगाम होता है। क्यूंकि जहा तर्क नहीं होता वहां भरम (अज्ञानता) होती है

तरकु चा ।। भ्रमीया चा ।।
(धनासरी भगत नामदेव जी, पन्ना ६९३, पंक्ति १८)

--: धरम सिंघ निहंग सिंघ :--

नोट:- यह लेख "गुरमत प्रकाश" मासिक पत्रिका, जो कि शिरोमणि कमेटी श्री अमृतसर साहिब से प्रकाशित होती है, के अप्रैल २००१ अंक में छप चुका है


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