Saturday, December 22, 2012

Gurmukhi Ramayan


गुरमुखि रामायण क्या है ?

आज तक आपने हिन्दूमत वाली रामायण के सन्दर्भ में बहुत कुछ देखा और सुना होगा | कई विद्वानों ने गुरबाणी को अर्थाने (व्याख्या करने , टिके लिखने ) के समय हिन्दूमत वाले राम को ही पेश किया है , परन्तु अफ़सोस कि आज तक किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया और न ही इस बात की चर्चा ही करी कि "गुरमुखि रामायण क्या है ? "



धरम सिंघ निहंग सिंघ जी ने गुरबाणी के अर्थ गुरबाणी में से ही करके गुरबाणी के सच के खोजिओं को एक नयी दिशा प्रदान की | आप जी इस गुरमुखि रामायण को आप सुनो और दुसरे चाहवान जिज्ञासुओं को भी बताओ | 
हम सचखोज अकैडमी के शिक्षार्थी आप की रूहानी तरक्की के लिए निहंग सिंघ जी की खोज पेश करते रहेंगे |

हिन्दूमत की रामायण के किरदारों के नामों का जिक्र गुरबाणी में है जैसे कि दसरथ, जनक ,राम , रामचंद , सीता, विभिक्षण(बभिखण) इत्यादि | आप ये अवश्य जानना चाहेंगे कि इन किरदारों का अर्थ (मायने ) गुरबाणी अनुसार क्या है ...?



Asht Dhaat Kee Kaayaa




असट धातु की काइआ :- 

१ ( आत्मा+परात्मा) के निराकारी शरीर(काइआ) के ८ (असट) गुण(धातु) जो कि मूल-मन्त्र (ओअंकारु, सतिनामु, करता पुरखु, निरभउ, निरवैरु, अकाल मूरति, अजूनी, सैभं) में बताये गए हैं | 
मन के अंतरात्मा से जुड़े रहने (अंतर्मुखी होने) और गुरबाणी की शबद विचार से हासिल गिआन द्वारा ही इन ८ धातुओं के बारे में भेद पता चलता है |

असटमी असट धातु की काइआ ॥
ता महि अकुल महा निधि राइआ ॥
गुर गम गिआन बतावै भेद ॥
उलटा रहै अभंग अछेद ॥९॥
-गउड़ी थिंती (भ. कबीर ), श्री आदि ग्रन्थ पन्ना ३४३









Siraad


गुरबाणी पितरों (बड़े-बड़ेरों) की तथाकथित आत्मिक शांति और मुक्ति और उनको मान सम्मान देने के लिए किये जाने वाले सिराध रूपी प्रपंच का खंडन करती है | मृतक पितरो को अर्पण किया गया खीर-पूरी का भोजन केवल कुत्तों(कूकर) और कव्वों (कऊआ) को ही नसीब होता है :-

रागु गउड़ी बैरागणि कबीर जी
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही ॥
पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही ॥१॥
मो कउ कुसलु बतावहु कोई ॥
कुसलु कुसलु करते जगु बिनसै कुसलु भी कैसे होई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही ॥
ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही ॥२॥
सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कउ भारी ॥
राम नाम की गति नही जानी भै डूबे संसारी ॥३॥
देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रहमु नही जाना ॥
कहत कबीर अकुलु नही चेतिआ बिखिआ सिउ लपटाना ॥४॥१॥४५॥
गउड़ी (भ.कबीर ), श्री आदि ग्रन्थ, पन्ना ३३२

Tuesday, October 16, 2012

Katiki karam kamavane

कतिकि:- कब तक 

कतिकि करम कमावणे दोसु न काहू जोगु ॥
परमेसर ते भुलिआं विआपनि सभे रोग ॥
वेमुख होए राम ते लगनि जनम विजोग ॥
खिन महि कउड़े होइ गए जितड़े माइआ भोग ॥
विचु न कोई करि सकै किस थै रोवहि रोज ॥
कीता किछू न होवई लिखिआ धुरि संजोग ॥
वडभागी मेरा प्रभु मिलै तां उतरहि सभि बिओग ॥
नानक कउ प्रभ राखि लेहि मेरे साहिब बंदी मोच ॥
कतिक होवै साधसंगु बिनसहि सभे सोच ॥९॥
- मांझ बारहमाहा(म. ५ ), श्री आदि ग्रन्थ, पन्ना १३५

व्याख्या:- जीव जब तक यह मानता रहेगा कि मैं कुछ कर सकता हूँ (यही करम है ), तब तक उसे गर्भ-जून से छुटकारा नहीं मिल सकता | जीव को उपदेश है कि तू कब तक (कतिकि )  ऐसे करम कमाता रहेगा , तेरे इस जनम-मरण के आवा-गमन का दोषी कोई दूसरा नहीं बल्कि ये करम (मैं कुछ कर सकता हूँ )  ही हैं |


Tuesday, October 9, 2012

Piyoo Daaday Jayvihaa Potaa Parvaanu


पियू दादे जेविहा पोता परवाणु ॥ 

- रामकली की वार; ३ (भ. बलवंड सता ), श्री आदि ग्रन्थ; पन्ना ९६८ 


पियू दादे और पोते के बारे में जानकारी लेने के लिए हम गुरमत की इस पंक्ति को आधार बना कर चलेंगे 

पड़िऐ नाही भेदु बुझिऐ पावणा ॥ - पन्ना १४८

भाव, बिना समझे(विचारे) महज पढने मात्र से ही गुरबाणी में बताये गए सच को समझा नहीं जा सकता 
आओ गुरबाणी में से विचारें की मन, जो कि जोत सरूप है , इसके माता-पिता कौन हैं?

कुछ परमाण:-


तूं मेरा पिता तूंहै मेरा माता ॥-  पन्ना  १०३  

मेरा पिता माता हरि नामु है हरि बंधपु बीरा ॥ -पन्ना  १६३  
तूं गुरु पिता तूंहै गुरु माता तूं गुरु बंधपु मेरा सखा सखाइ ॥३॥ -पन्ना १६७ 
गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ॥ -पन्ना २५० 
हरि नामु पिता हरि नामो माता हरि नामु सखाई मित्रु हमारा ॥ - पन्ना ५९२ 
 हरि आपे माता आपे पिता जिनि जीऊ उपाइ जगतु दिखाइआ ॥  - पन्ना ९२१ 
हरि जी माता हरि जी पिता हरि जीऊ प्रतिपालक ॥ - पन्ना ११०१


अतः मन के माता-पिता दोनों "चित्त , गुर , हरि, गुरदेव , सतिगुर , गोबिंद, प्रभ " इत्यादि हैं , जो कि पूरणब्रह्म का रूप हैं 
अब बूझो (जानो) कि दादा यां बाबा कौन है ?
यह परमेश्वेर , गुरु, सतिगुरु , यां प्रभू है जो कि पारब्रह्म का रूप है   

पीऊ दादे का खोलि डिठा खजाना ॥ - पन्ना  १८६

इसका भी अर्थ यही बनेगा कि गुरबाणी "पियू दादे का" खजाना है 

                          पीऊ :- चित्त, गुर , हरि , सतिगुर ,गुरदेव,गोबिंद, प्रभ
दादा :- परमेश्वेर , गुरु, सतिगुरु , यां प्रभू 
पोता :- मन , ध्यान , सुरत    

-  गुरजीत सिंघ आस्ट्रेलिया


Sunday, October 7, 2012

Sachkhoj Academy ka Udeshya

सच्चखोज अकैडमी का उदेश्य :-

आदि बाणी और दसम बाणी के टीकों (व्याख्याओं) मैं जानभूझ कर यां अनजानेपन में डाले गए यां गलती से डले हुए शंशों (शंकाओं) को दूर करके गुरमत को गुरबाणी (आदि बाणी तथा दसम बाणी ) में से खोज कर उसका प्रचार और परसार करना |

Saturday, October 6, 2012

Sikkhi saprdaay nahi hai


सच किसी सम्प्रदाय के घेरे में नहीं आता, सिक्खी सारी मानवता का धरम है | यह अलग बात है कि आज सिक्खों ने सिक्खी को एक सम्प्रदाय बना दिया पर मूल रूप से सिक्खी कोई सम्प्रदाय या कौम नहीं है |  

रागु आसा घरु २ महला ४ ॥
किस ही धड़ा कीआ मित्र सुत नालि भाई ॥
किस ही धड़ा कीआ कुड़म सके नालि जवाई ॥
किस ही धड़ा कीआ सिकदार चउधरी नालि आपणै सुआई ॥
हमारा धड़ा हरि रहिआ समाई ॥१॥
हम हरि सिउ धड़ा कीआ मेरी हरि टेक ॥
मै हरि बिनु पखु धड़ा अवरु न कोई हउ हरि गुण गावा असंख अनेक ॥१॥ रहाउ ॥
जिन्ह सिउ धड़े करहि से जाहि ॥
झूठु धड़े करि पछोताहि ॥
थिरु न रहहि मनि खोटु कमाहि ॥
हम हरि सिउ धड़ा कीआ जिस का कोई समरथु नाहि ॥२॥
एह सभि धड़े माइआ मोह पसारी ॥
माइआ कउ लूझहि गावारी ॥
जनमि मरहि जूऐ बाजी हारी ॥
हमरै हरि धड़ा जि हलतु पलतु सभु सवारी ॥३॥
कलिजुग महि धड़े पंच चोर झगड़ाए ॥
कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु वधाए ॥
जिस नो क्रिपा करे तिसु सतसंगि मिलाए ॥
हमरा हरि धड़ा जिनि एह धड़े सभि गवाए ॥४॥
मिथिआ दूजा भाउ धड़े बहि पावै ॥
पराइआ छिद्रु अटकलै आपणा अहंकारु वधावै ॥
जैसा बीजै तैसा खावै ॥
जन नानक का हरि धड़ा धरमु सभ स्रिसटि जिणि आवै ॥५॥२॥५४॥
- राग आसा(म. ५), पन्ना ३६६

Wednesday, October 3, 2012

Poojaa kaa Dhan

संखीया एक किस्म का जहर होता है और तथाकथिक धार्मिक स्थलों पर पूजा के चडावे के तौर पर दान पात्रों (गोलकों ) में डाली गयी बेशुमार दौलत भी आज संखीया जैसा असर दिखा रही है जिस वहज से सिक्खों में से सिक्खी (गुरमत की शबद विचार रूपी असल शिक्षा) ख़तम हो रही है |

Sunday, September 30, 2012

Guru Kon Hai...?


गुरमत के हिसाब से हुकम ही गुरु है। गुरबाणी ज्ञान गुरु है  १० सतगुर साहिबान में से किसी ने भी खुद को गुरु नहीं कहलवाया  उन्हें तो भगत ,  दास, दासन दास कहलवाने में ख़ुशी होती थी  दसम पातिशाह ने तो ऐलान किया था कि
 "जो हम को परमेश्वर उचरि है ॥ ते सभ नरकि कुण्ड महि परि है 
मैं हो परम पुरख को दासा ॥ देखनि आयो जगत तमाशा ॥ पन्ना ३२
  इस सब के बावजूद भी अगर हम उन्हें गुरु कहें, तो ये हमारी मुर्खता ही मानी जाएगी । आज कल के खुद को संत, गुरु , ब्रह्मज्ञानी कहलवाने वाले ढोंगी और पाखंडियों को जब गुरमत ज्ञान के तराजू में तोला जाता है तो उनका पलड़ा खाली निकलता है | गुरमत की कसौटी पर वो कहीं पर भी खरे नहीं उतरते परन्तु वो खुद को श्री श्री १००८, संत महापुरख , ब्रह्मज्ञानी और पता नहीं कितनी ही उपाधियों से प्रमाणित करते हैं और बोर्डो और इश्तिहारों में लिखवाते हैं 
 लोगों को अपने भ्रम जाल में फ़साने के लिए खुद को किसी भी कीमत पर कम नहीं आंकते  दरगाह (सचखंड) में वो सभी पंच परवान माने जाते हैं जिनके पास १ जैसा ब्रह्मगिआन और ध्यान हो परन्तु इन पाखंडियों का सब का गिआन भी अलग अलग है और ध्यान भी माया इकट्ठी करने के अलग अलग तरीकों में है |
- धरम सिंघ निहंग सिंघ
http://www.youtube.com/watch?v=pMBM4_DPPek&feature=plcp

Monday, September 24, 2012

Gaoudee Sat Vaar (Bhagat Kabeer)


 
गउड़ी सत वार (भ, कबीर ) , श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना ३४४
व्याख्याकार: - सुखविंदर सिंघ निहंग सिंघ



ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
रागु गउड़ी वार कबीर जीउ के ७ ॥
बार बार हरि के गुन गावउ ॥ गुर गमि भेदु सु हरि का पावउ ॥१॥ रहाउ ॥
आदित करै भगति आरंभ ॥ काइआ मंदर मनसा थंभ॥
अहिनिसि अखंड सुरही जाइ ॥ तउ अनहद बेणु सहज महि बाइ ॥१॥

व्याख्या :- भक्त कबीर जी सप्ताह के ७ दिनों (वारों) के जरिये ब्रह्म ज्ञान की बात बता रहे हैं | काशीमत ने सप्ताह के दिनों की आड़ में लोगों में बहुत भरम फैलाया | किस वार को क्या खरीदना चाहिए क्या नहीं, किस वार को क्या दान करना चाहिए , किस वार को कौन सा व्रत रखना चाहिए,कौन सा दिन अच्छा है तथा कौन सा दिन बुरा है इत्यादि | गुरबाणी दिनों (वारों) के प्रति किसी तरह के भरम का खंडन करती है | भक्त कबीर जी कहते है की वार कोई भी हो हर रोज हरी के बारे में ज्ञान लेना चाहिए, हरी के गुणों का विचार करना चाहिए और इस ज्ञान से ये हासिल होगा कि हरी के बारे में जो भेद (बुझारत) है वो समझ आ जाता है( परमेश्वर कौन है? इस भेद का पता लग जाता है ) | जो हरी के गुणों की विचार करेगा, वो ज्ञानवान हो जायेगा { गुण वीचारे गिआनी सोइ ॥ गुण महि गिआनु परापति होइ ॥ श्री आदि ग्र, पन्ना ९३१ } 

गुरबाणी की विचारधारा(मत) को जानना, गुरमत की समझ (सोझी) लेना ही असल भक्ति है |{गुर की मति तूं लेहि इआने ॥भगति बिना बहु डूबे सिआने ॥ , पन्ना २८८ } | जिस दिन किसी जिज्ञासु (गुरमुख) ने भक्ति का यह सफ़र शुरू कर दिया वही दिन ही आरंभिक (आदित) दिन (इतवार,Sunday) होगा बेशक से उस दिन सप्ताह का कोई भी दिन क्यूँ न हो | बाहर वाला शरीर काया नहीं होता , ये तो बिदेही है , चोला (कपडा) है , आत्मा का निराकारी शरीर (मन मंदिर ) ही असल मैं काया है | इस मन मंदिर की इच्छाओं रूपी स्तंभों (जिनकी वजह से मन मंदिर का अकार है ) को धीरे धीरे गिराना शुरू करना है , मन की इच्छा पर काबू करना (रोकना , लगाम कसना ) शुरू करना है | गुरमत के ज्ञान लेने के साथ साथ मन की इच्छाओं को भी काबू करना होगा | ऐसा नहीं की ज्ञान भी लो और मन पर लगाम भी ना कसो | २ नावों मैं पाँव रखोगे तो डूबोगे ही | २ तरफ़ा ध्यान (सुरत) रखोगे तो डगमगाओगे ही | मन की इच्छा को त्याग कर १ अंतरात्मा (मन का मूल, हरी, राम ) की आवाज (इच्छा) अनुसार चलोगे तो भवसागर पार कर पाओगे | इसी तरह ज्ञान लेते समय भी ध्यान एकाग्र-चित्त होना चाहिए, तभी गुरमत धारण होगी | अगर लगातार (अहिनिस) ये एकाग्रता बनी रहे, सुरत (बिरती,ध्यान,सुरही) अखंड होकर (विभाजित, खंडित ना होकर ) रहे (चले, जाइ) तब (तउ) लगातार(अनहद, बिना रूकावट के, बिना विचलित हुए ) ब्रह्म ज्ञान की सोझी(समझ ) आती रहती है {कृष्ण (मन, मुरली मनोहर ) की बांसुरी(बेणु, इच्छा ) बंद होकर राम (मूल ,अंतरात्मा ) की अनहद बांसुरी बजने लगती है } यह सच संसारी कार्य एकाग्रता से करते हुए भी उतना ही लागु होता है | इस अनहद बांसुरी से जाग्रत अवस्था में (सुचेत होकर ) वह ब्रह्म-ज्ञान इकठ्ठा होता है जो साथ जाना है| { हमें कृष्ण की बांसुरी की आवाज को धीरे धीरे कम करके बंद करना है और राम की बांसुरी की आवाज को तेज करना है और ये तभी होगा अगर ध्यान खंडित ना हो} 

सोमवारि ससि अम्रितु झरै ॥ चाखत बेगि सगल बिख हरै॥बाणी रोकिआ रहै दुआर ॥ तउ मनु मतवारो पीवनहार ॥२॥

कबीर जी कहते है कि गुरमुख के लिए उस दिन सोमवार होगा जब मन (ससि, चंद्रमा) पर मूल (सूरज,चित्त) की तरफ से ज्ञान अमृत झड़ने लगेगा (जब मन रूपी चन्द्रमा चित्त रूपी सूरज की ज्ञान रूपी रौशनी से प्रकाशित होने लगेगा, बाणी की समझ आने लगनी शुरू हो जाएगी ) | यह ज्ञान अमृत तब झड़ना शुरू होगा अगर गुरबानी में कही गयी बात की गहराई तक विचार करें और तत्त ज्ञान रूपी माखन निकालें | जिस ज्ञान की कभी मृत्यु न हो वो अमृत ज्ञान (अमर ज्ञान, अमर गुर ) होता है | ऐसा सच्चा ज्ञान हर युग में सार्थक रहता है | अगर गुरबाणी की समझ आनी शुरू हो जाये तो उसे कबूल करके (मानकर, चखकर ) उस पर अमल भी करना शुरू करना चाहिए जिससे माया का सारा प्रभाव(बिख) ख़तम होना शुरू हो जाये और जीवन में कुछ बदलाव आना शुरू हो जाये | गुरबाणी के ज्ञान को हजम करना बहुत कठिन है , लोगारीत(भेडचाल) पर चलने वाले आम संसारी लोग इस सच को जल्दी कबूल नहीं कर पाते | गुरबाणी के इस ज्ञान रस द्वारां ही मन हिरदे के द्वार (दसम द्वार) पर रुका (बंधा , टिका ) रह सकता है (वर्ना पाखंडवाद में पड़ कर चाहे कितना ही दान-पुन्य , मूर्ती पूजा और व्रत इत्यादि का करमकांड कर लो मन कभी नहीं टिकेगा){गिआन का बधा मनु रहै गुर बिनु गिआनु न होइ ॥५॥ पन्ना ४६९ } | माया के नशे में मदमस्त होकर मन अपने मूल को भूल बैठा है | जिस दिन ज्ञान का नशा (नाम खुमारी ) चड़ने लग गया उस दिन मन मतवारा(बांवरा) होकर इसे पिएगा | माया का रंग फीका पड़कर ब्रह्म-ज्ञान का रंग चड़ना शुरू हो जायेगा | 

मंगलवारे ले माहीति ॥ पंच चोर की जाणै रीति ॥घर छोडें बाहरि जिनि जाइ ॥ नातरु खरा रिसै है राइ ॥३॥

मंगलवार तक गुरबाणी ज्ञान की भक्ति की क्या अवस्था होगी इसका जिक्र कबीर जी करते हुए कहते है कि जीवात्मा(बुधि) रूपी नारी को अपने साजन (प्रिय,माही,कंत,खसम) की समझ आने लगेगी {सहु नेड़ै धन कमलीए बाहरु किआ ढूढेहि ॥,पन्ना ७२२ }| माही कौन है?, कहा है?, ये समझ आ जाएगी| दरअसल जो हमारा मूल (अंतरात्मा, चित्त, शुद्ध मन, सकारात्मक मन) है वो ही माही(साजन) है जिसमे से जीवात्मा की पैदाइश है |मन के साथ जुड़े पांच विकारों (चोरों) (काम,क्रोध,लोभ,मोह,अहंकार) की रीती समझ आ जाएगी कि कैसे इन विकारों में लिप्त होकर मन अपने मूल की आवाज को अनसुना कर देता है और अपनी मर्ज़ी(इच्छा) करता है | एक विकार दूसरे विकार के साथ मिल कर कैसे अनर्थ करवाता है ये रीती(विधि,strategy,approach) समझ आ जाएगी | इन चोरों के बीच आपस में क्या लिंक (कड़ी) है और इनकी एकजुटता को तोड़ कर इन पर कैसे काबू पाया जा सकता है ये समझ आने लगेगी | कैसे एक चोर को काबू करे कि उसके साथ जुड़े दूसरे चोर अपने आप ही चंगुल में फंस जाये (पकडे जाएँ) {मारै एकहि तजि जाइ घणै ॥२१॥,पन्ना ३४१ }| भरम(अज्ञानता) की वजह से ये चोर पैदा होते है, ये ही इनकी माँ (जड़) है, इसलिए अगर दुरमत(अज्ञानता) ख़तम कर दी जाये तो ये अपने आप ही वश में आते जायेंगे और ये अज्ञानता गुरबाणी के ज्ञान के परगास से ही नष्ट होगी {गुर परसादि भरम का नासु ॥,पन्ना २९४} | चेतना का केंद्र(मूल,हिरदा,घर) नहीं छोड़ना | मूल(राम) को ये पसंद नहीं (नाराज है) की बुधि और मन अपना घर छोड़ कर बाहर त्रिकुटी में जाएं और वहां बैठ कर अपने भविष्य को सुरक्षित करने के उपाय करने में ही मस्त हो जाएं{हम आदमी हां इक दमी मुहलति मुहतु न जाणा ॥,पन्ना ६६० }| हमें वर्तमान में जी कर आज को ही सवारना,संभालना चाहिए | 

बुधवारि बुधि करै प्रगास ॥ हिरदै कमल महि हरि का बास॥गुर मिलि दोऊ एक सम धरै ॥ उरध पंक लै सूधा करै ॥४॥

गुरमुख का बुधवार उस दिन है, जिस दिन उसकी बुधि में ज्ञान का परगास हो जाये (बौधिक लेवल ऊंचा हो जाये, बोध से प्रबोध हो जाये, गुरबाणी की और बुझारत समझ आ जाये )| सोच(विचारों) के वातावरण में भी विकारों की मलीनता की धूल हर वक्त जमती रहती है, इसलिए इसे लगातार प्रतिदिन हटाते (डस्टिंग करते) रहना चाहिए| जितनी मलीनता हटती जाएगी बुधि में ज्ञान का उतना परगास(रौशनी) होती जाएगी| ज्ञान का परगास इतना हो जाये कि जिससे हरी के बारे में जो भ्रम था वो ख़तम हो जाये और पता लग जाये कि हरी जो हमारी चेतना(आत्मा) का केंद्र है, उसका निवास(बास) बाहर कहीं और जगह नहीं बल्कि हमारे भीतर हिरदे कमल में ही है| हमारा आपा(अंतरात्मा) ही हरी है | बुधि के लिए उपदेश है कि वो ज्ञान(गुर) के साथ मिलकर दोनों (१/२ चित्त + १/२ मन ) को मिलाकर १ कर दे ( मन और चित्त का आपस में जो मतभेद है वो ख़तम कर दे)| मन जब माया की तरफ ध्यान होने की वजह से अपने मूल से उलट हो जाता है (उरध पंक), बुधि ने ज्ञान के साथ मिलकर इसी मन को पकड़ कर सीधा (सूधा) करना है (मन रूपी इसी उलटे कमल को सीधा करना है, ध्यान को माया से उल्टाकर अंतरध्यान करना है ) |ये मन ही बुधि के लिए सारी परेशानी पैदा करता है, बुधि अगर अंतरात्मा(चित्त) की आवाज के अनुसार चले तो कोई परेशानी नहीं होती(बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरु परेसानी माहि ॥, पन्ना ७२७ ) अगर आप अपनी पिछली तमाम गलतियों(परेशानियों) पर विचार करें तो पाएंगे कि उन सब का कारण अंतरात्मा के विरुद्ध आपके मन की मर्जी(इच्छा) ही थी | 

ब्रिहसपति बिखिआ देइ बहाइ॥ तीनि देव एक संगि लाइ॥तीनि नदी तह त्रिकुटी माहि॥ अहिनिसि कसमल धोवहि नाहि ॥५॥

आदित (इतवार) से लेकर बुधवार तक की अवस्था भक्ति आरंभ करके बुधि में ज्ञान का परगास करने और मन और चित्त को एक करने की प्रकिर्या थी |बुधवार की अवस्था तक मन की मर्जी अनुसार चलने वाले वाले दिन ख़तम हो जाते हैं | अब ब्रिहसपति(गुरुवार) की अवस्था में सिर्फ अंतरात्मा (चित्त) की ही प्रधानता रहेगी और बुधि, मन के साथ मिलकर, चित्त का ही अनुसरण करेगी | पहले बुधि रूपी इस्त्री ने अपने मन रूपी बच्चे को ज्यादा लाड-प्यार में बिगाड़ लिया था ,हर वक़्त अपने खसम (हरी, चित्त, कंत, साजन ) की इच्छा के विरुद्ध मन रूपी बच्चे की मर्जी में साथ देती थी और उसका ही अनुसरण करती थी (दोनों अंतरात्मा के विरुद्ध चलते थे ) | ज्ञान की ब्रिहसपति वाली अवस्था मे आकर तो गुरमुख अपने अन्दर से माया का मोह बिलकुल ही धोकर बहा देता है | वेदों में जो एक ओम(जोत) का जिक्र है , पंडित(विद्वान्) ने उससे उलट रास्ता बनाकर(काशीमत) उस १ शक्ति को ३ हिस्सों में बांटकर ३ देवते बना दिए और उनकी संसारी मूर्तियाँ बना कर पूजा करवानी शुरू कर दी | ऐसा प्रचार कर दिया की जीवो को पैदा करने वाला अलग देवता ब्रह्मा है , पालना करने वाला अलग देवता विष्णु है, और मारने वाला (संहार) करने वाला अलग देवता महेश(शिव,महादेव) है | गुरमुख की ब्रिहसपति वार की ज्ञान की अवस्था में इन ३ देवताओं का भ्रम (मनौत) भी ख़तम हो जाता है और वो इन ३ देवतों की मनौत को त्याग कर १ के साथ जुड़ जाता है| ये ज्ञान हो जाता है कि पैदा करने वाला , पालने वाला और मारने वाला १ ही है ३ अलग-अलग नहीं| १ ही तीनो अवस्थाओं में काम करता है | जब यही १ जोत, जो हमारे अन्दर है, वो किसी को मारती है तब वो शिव(संहार) रूप(अवस्था) में काम कर रही होती है | जब यही १ जोत, जो हमारे अन्दर है, वो किसी का पालन पोषण कर रही है(१ जीव का संसारी पालन पोषण दुसरे जीव के जरिये ही होता है ) तब वो विष्णु रूप(अवस्था) में काम कर रही होती है , और जब यही १ जोत, जो हमारे अन्दर है, वो किसी को पैदा कर रही है(१ जीव का संसारी जन्म दुसरे जीवों के जरिये ही होता है ) तब वो ब्रह्मा रूप (अवस्था) में काम कर रही होती है {इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीबाणु ॥, पन्ना ७, इकु=एक ही} | हमारे दिमाग का वो बिंदु जहाँ हमारी चेतना(सुरत,ध्यान) आँख, नाक और कान रूपी ज्ञान इन्द्रियों (३ नदियों ) से जुड़कर बाहरमुखी होती है (बहती है ) वो त्रिकुटी कहलाता है | जब हम आँखों से कुछ देखते हैं तो हमारा ध्यान (सुरत ,चेतना ) उसी तरफ बह (खींच) जाता है , अगर हम दूर कहीं किसी आवाज को कानों से सुनते हैं तो भी हमारा ध्यान (सुरत, चेतना ) उस तरफ बह(खींच) जाता है ऐसे ही कहीं दूर से आती हुयी खुशबू (सुगंध ) हमारे ध्यान को उस तरफ खींच कर ले जाती है(बहा कर ले जाती है ) | अगर चेतना इन ३ नदियों में बह रही है तो वो त्रिकुटी में है, हिरदे(घट, निज घर) में नहीं | वेदों में जिस त्रिकुटी, त्रिबेणी(३ नदियों का संगम ) का जिक्र था काशीमत ने उसे गंगा , यमुना और सरस्वती नदी का अठसठ तीर्थों वाला पर्यागराज संगम बना कर संसारी रूप दे दिया और योगियों ने इसे इड़ा,पिंगुला और सुखमना नाड़ियों का नाम दे दिया | गुरबाणी में अड़ियल बुधि को इड़ा , विकलांग (अपंग) मन को पिंगुला और अंतरात्मा की आवाज़ को सुखमना कहा गया है | {इड़ा पिंगुला अउर सुखमना तीनि बसहि इक ठाई ॥ बेणी संगमु तह पिरागु मनु मजनु करे तिथाई ॥१॥,पन्ना ९७४, सुखमना इड़ा पिंगुला बूझै जा आपे अलखु लखाए ॥,पन्ना ९४४ } | त्रिबेणी में तो, मन को माया के मोह की जो मैल (कसमल ) लगी है, उसको लगातार ज्ञान से धोना था, परन्तु धोया नहीं | योगियों ने तो त्रिकुटी में जबरदस्ती मन को टिकाने का (ध्यान लगाने ) का हठ-योग कर लिया | परन्तु बिना ज्ञान के मन को रोका (बांधा ) नहीं जा सकता| पंडितों ने बाहर बनाये हुए पर्याग-राज संगम को तीर्थ मानकर उसमे स्नान करना ही मन का शुद्धिकरण मान लिया| यही काम आज सिक्ख भी धार्मिक स्थानों पर बने सरोवरों में नहा कर कर रहे है | गुरबाणी के ज्ञान से मन के विकारों की मैल धोने की बजाये तीर्थों पर नहा कर तन को ही धो रहे हैं | धार्मिक स्थानों को पाठशाला के तौर पर लेकर वहां से गुरमत ज्ञान हासिल करना था, हरी जो अन्दर है, उसकी जानकारी (समझ) लेनी थी | मन को बदलने का काम तो गुरबाणी के ज्ञान ने करना है ना कि बड़े बड़े संगमरमर और स्वर्ण जडित धार्मिक स्थलों पर बनी इमारतों ने | 

सुक्रितु सहारै सु इह ब्रति चड़ै ॥ अनदिन आपि आप सिउ लड़ै॥
सुरखी पांचउ राखै सबै ॥ तउ दूजी द्रिसटि न पैसै कबै ॥६॥
थावर थिरु करि राखै सोइ ॥ जोति दी वटी घट महि जोइ॥
बाहरि भीतरि भइआ प्रगासु॥ तब हूआ सगल करम का नासु ॥७॥
जब लगु घट महि दूजी आन॥ तउ लउ महलि न लाभै जान॥
रमत राम सिउ लागो रंगु॥ कहि कबीर तब निरमल अंग॥८॥१॥

सिक्ख (गुरबाणी की शिक्षा लेने वाला ) का शुक्रवार तब है जब इसकी सोच (सुक्रितु) अच्छी हो जाये | हमारी सोच(विचारधारा ) ही हमारी पहचान होती है |गुरबाणी सोच(विचार) पर ही प्रहार करती है , मनघडंत मान्यताओं और विचारों को तहस नहस करके(भ्रम को नष्ट करके ) सच की जानकारी देते हुए हमारे विचारों(सोच) को नया रूप देती है | गुरबाणी की विचारधारा अनुसार खुद को बदलना थोडा कठिन जरुर है, मगर जो कोई भी गुरबाणी की विचारधारा से अपनी सोच बदलता है (जो इस सुक्रितु को सहार लेता है, बर्दाश्त कर लेता है) वो ही आत्मिक तल पर ऊँचाईयाँ चड़ता है| गुरबाणी का ज्ञान ही हमें आत्मिक मार्गदर्शन कराता है, इसलिए ज्ञान ही गुरु है |जो सोच को बदलने का ऐसा काम करता है, वो (खालसा ) प्रति दिन अपने आप से ही जूझता(लड़ता ) है (विकारों को ख़तम करने और अपने मन पर काबू पाने की जद्दोजहत में ही लगा रहता है, तैयार-बर- तैयार रहता है )| हमें हर वक्त यही ध्यान रखना है कि कहीं हमारी सोच कोई गलत रुख अख्तियार तो नहीं कर रही | असल धरम की लडाई (जिहाद) तो हर वक्त अपने आप से लड़ना ही है( शैतान मन के विकारों और मर्ज़ी पर ज्ञान के डंडे से चोट करना है ) {अकली साहिबु सेवीऐ अकली पाईऐ मानु ॥ अकली पड़्हि कै बुझीऐ अकली कीचै दानु ॥ नानकु आखै राहु एहु होरि गलां सैतानु ॥१॥, पन्ना १२४५ } | अगर कोई यह लड़ाई नहीं लड़ रहा तो वो धार्मिक (मजहबी) नहीं है | जो धरम ज्ञान विचार को छोड़ कर करमकांड, आडम्बर, झूठी मनघडंत साखियों (कथा -कहानियों) के भ्रम जाल में फ़सा है वह फ़ोकट धरम है | हमें अपनी सुरत (ध्यान, सुरखी) को पांचो विकारों (काम,क्रोध,लोभ,.मोह ,अहंकार ) पर टिका कर रखना है (नज़र रखनी है ) , जैसे ही इनमे से कोई पनपने की कोशिश करे उसे वहीँ ख़तम कर देना है(अपमानित करके निकाल देना है ) | ऐसा करने से मन की सोच (मन मर्ज़ी , नर बिरती , दूजी द्रिसटि, मंदी द्रिसटि ) पैदा नहीं होगी | 


जिसने यह भक्ति आरम्भ नहीं की वो खुद ही शनिचर है, और उसके उपर ज्ञान की कमी का प्रकोप है इसलिए ही शनिवार उसके लिए मंदा है | शनि के प्रकोप को शांत करने के लिए बाहर किसी शनि देवता को सरसों का तेल नहीं डालना अलबत्ता अगर तत्त ज्ञान का तेल बुधि के अन्दर डाल लिया तब कोई प्रकोप नहीं { ततु तेलु नामु कीआ बाती दीपकु देह उज्यारा ॥ जोति लाइ जगदीस जगाइआ बूझै बूझनहारा ॥२॥ - पन्ना १३५०} | अगर ये ज्ञान का तेल हररोज डालते रहे तो एक दिन शरीर का मोह मिट जायेगा और आत्मा ही द्रिस्टीमान होगी | जिस दिन मन की भटकना ख़तम हो गयी( मन टिक गया, स्थिर हो गया ) और ये यकीं हो गया की जो कुछ भी होता है हुकम अनुसार ही होता है, हमारे करने से कुछ नहीं होता {सभनी छाला मारीआ करता करे सु होइ ॥,पन्ना ४६९ }, उस दिन गुरमुख का शनिवार है | तत्त ज्ञान की यह जोती हृदय में ही प्रज्वलित होगी जिससे अन्दर बाहर सब जगह परगास हो जायेगा(दूसरों के अन्दर भी उसी एक जोत के होने का आभास हो जायेगा ) {सभ महि जोति जोति है सोइ ॥तिस कै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥ - पन्ना ६६९, सभु गोबिंदु है सभु गोबिंदु है गोबिंद बिनु नही कोई ॥ - पन्ना ४८५ } | शनिवार की इस आखिरी अवस्था में आकर ही यह भ्रम ख़तम होता है कि मैं कुछ करम कर सकता हूँ {करम करत होवै निहकरम ॥-पन्ना २७४ } | गुरबाणी की पूरी समझ आने के बाद ही यह पता चलता है की जो कुछ हमने पीछे किया , जो कुछ कर रहे है और जो कुछ आगे करेंगे वो सब एक कठपुतली का खेल ही है , खेल करवाने वाला कोई और है जिसके हाथ में हमारी डोरी है {जीअ जंत तेरे धारे ॥प्रभ डोरी हाथि तुमारे ॥-पन्ना ६२६, हुकमे आवै हुकमे जावै हुकमे रहै समाई ॥-पन्ना ९४० } | ब्रह्म ज्ञान की इस सप्ताहिक कथा कहने के बाद कबीर जी अंत में कहते हैं कि जब तक माया का मोह (दूजी आन, दुरमत ) अन्दर है तब तक ज्ञान का वो महल नहीं जान पाओगे जो कि यम (भ्रम, अज्ञानता ) कि पकड़ से परे है (ज्ञान का वो बड़ा दायरा जहाँ किसी तरह का भ्रम नहीं जा सकता, अज्ञानता छा ही नहीं सकती ) | गुरमत निज नारी है और दुरमत पर नारी है | हमें निज नारी के साथ ही जुड़ कर रहना है, नित्य प्रेम बढ़ाते रहना है और स्वप्न में भी पर नारी की सेज नहीं करनी | हमारी बुधि जब गुरमत की धारणी होती है तो ये सुरूप सुजात, सुलक्षणी है, और जब ये दुरमत के साथ जुडती है तो करूप, कुजात और कुलक्षणी कहलाती है | अगर बुधि सुलक्षणी हो जाएगी तो अपने खसम राम के साथ आनंद मनाएगी और कबीर जी कहते है की जो बुधि का संगी, मन है वो भी निर्मल (विकारों की मैल से रहित ) हो जायेगा |

Je Ko Gurmukhi Hoei


जे को गुरमुखि होइ 
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आज हमें गुरबाणी की सही समझ ना आने के कारण तो बहुत हैं | जिनमे से विद्या , अविद्या और ब्रह्म-विद्या के बीच का अंतर हमें मालूम ना होना सबसे बड़ा कारण है | गुरबाणी में कई जगह ऐसे संकेत दिए गए हैं जैसे कि:-

माधो अबिदिआ हित कीन ॥ 
बिबेक दीप मलीन ॥१॥ रहाउ ॥
आसा (भ. रविदास ) श्री आदि ग्रन्थ, पन्ना ४८६/६ 

पाधा पड़िआ आखीऐ बिदिआ बिचरै सहजि सुभाइ ॥
बिदिआ सोधै ततु लहै राम नाम लिव लाइ ॥
ामकली ओंकार (म. १ ) श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना ९३७/१८ 

विदिआ वीचारी तां परउपकारी ॥आसा (म. १ ) श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना ३५६/१४ 

उपरोक्त पंक्तियों से पता लगता है कि विद्यालयों , महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों से पढाई कर चुके या पढाई करवाने वाले गुरबाणी के अर्थ नहीं कर सकेंगे क्यूंकि यहाँ महज विद्या पढाई जाती है विचारी नहीं जाती | विचारी हुई विद्या ही हमारे आत्मिक भले के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है | नहीं तो विद्वान् वाद-विवाद में उलझ कर असल में अपनी अक्ल का नाश ही किया करते हैं |

अकलि एह न आखीऐ अकलि गवाईऐ बादि ॥
सारंग की वार (म. १ ), श्री आदि ग्रन्थ ,पन्ना १२४५/४ 

खोजी उपजै बादी बिनसै हउ बलि बलि गुर करतारा ॥मलार (म. १ ), श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना १२५५/६ 

उपरोक्त पंक्तियाँ उस वक्त के विद्वानों या पण्डितों के प्रथाय ही उचारीं हुई हैं | जो की आज के विद्वानों पर भी सौ फीसदी लागु होती हैं | क्यूंकि आज के सिक्ख विद्वान् वाद-विवाद में उलझे हुए हैं | विद्वान् विद्या पढने तक ही सिमित होते हैं 
जबकि गुरमुख जो पढते हैं उसको विचारते भी हैं कि इसमें सच कितना है ?
इसलिए गुरमुख मनमत के ग्रंथों से कभी प्रभावित नहीं हुए | जबकि विद्वानों को मनमत की समझ ही नहीं होती | क्यूंकि मनमत की समझ ही तभी आती है जब कोई अपनी अंतरात्मा से अपनी मत (अक्ल ) को थोड़ी मान लेता है | 

तू समरथु वडा मेरी मति थोरी राम ॥ बिहागडा (म. ५ ), श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना ५४७/१० 

विद्वानों में यह गुण ना कभी हुआ है और ना ही हो सकता है , पर अगर कहीं ऐसा हो जाये फिर विद्वान् अपने आप को विद्वान् नहीं मानता , वो गुरमुख हो जाता है | इसलिए गुरबाणी को अर्थाना गुरमुखों के हिस्से ही आता है | 

बाणी बिरलउ बीचारसी जे को गुरमुखि होइ ॥ रामकली ओंकार (म. १ ) , श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना ९३५/१२ 

बाणी को केवल वो ही विचार सकता है जो गुरबाणी को पढने की बजाये गुरबाणी से पढ़ा हो |पिछले ३-४ सालों में विद्वानों ने ही यह मान लिया है कि गुरबाणी को अर्थाने के लिए हमारे पास कोई शब्दकोष नहीं है क्यूंकि गुरबाणी की भाषा अपने आप में एक अलग भाषा है | इसमें निराकार के ज्ञान का कथन किया गया है जबकि निराकार के ज्ञान का विषय संसारी महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों का है ही नहीं | 
 -: धरम सिंघ निहंग सिंघ  :-

Tuesday, May 15, 2012

००१ शलोक भगत कबीर जी के

कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपर रामु || 
आदि जुगादी सगल भगत ता को सुखु बिस्रामु || १ || 
( शलोक भगत कबीर जीउ के, श्री आदि ग्रन्थ , पन्ना १३६४ )

इस शलोक में भगत कबीर जी संसारी माला (तसबी) का खंडन करते हुए कह रहे है कि 'रसना ऊपर राम' (बुद्धी के ऊपर ब्रह्म-ज्ञान की परत चड़ते रहना , बुद्धी में शबद-विचार चलते रहना और उसका विवेक-बुद्ध बन जाना) ही असल में मेरी माला है | आजतक जितने भी भगत जन हुए हैं उन सभी को इसी सिमरनी के कारन सुख और मन का टिकाव मिला है | इस शलोक में कबीर जी अपनी सिमरन शक्ति को ही सिमरनी मानते हैं |




Thursday, May 10, 2012

Parmeshwar Saagar Hai

हम पानी की बूँद की तरह हैं और परमेश्वर सागर है , इसलिए हमारी इच्छा (ख्वाइश, मर्ज़ी, हुकम, इंशा,मंशा, इरादा, भाणा ) उसकी इच्छा के आगे काम नहीं करती | जब जीव के अन्दर का ह्रदय हेमकुन्ट बन जाता है (ब्रह्म-अग्न से तृष्णा की अग्न ख़तम होकर शीतलता और ठंडक आ जाती है ) तब यह उसके हुकम(भाणे) में चलता है |